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पंचकर्म

वर्तमान समय एक व्यस्तथ आधुनिक मशीनी युग बन गया है। जिसके कारण लोगों की जीवनचर्या में मूलभूत परिवर्तन हुए हैं जिसमें आहार सम्बन्धी जैसे फास्ट फूड, डिब्बा बंद भोजन, उच्च कैलोरी युक्त भोजन, अतिशीत भोजन ग्रहण तथा शारीरिक श्रम एकदम अल्प हो गया है। अर्थात् वर्त्तमान युग में शारीरिक श्रम कम तथा मानसिक श्रम अधिक हो गया है। आरामदेह जीवन व्यतीत करने को लालसा के कारण अनेक प्रकार की व्याधियों से ग्रस्त होते जा रहे हैं जिसमें प्रमुख रूप से मोटापा, मधुमेह, उच्च रक्त चाप, हाइपोथाईरोडिज्म, हृदय रोग आदि शामिल है। पक्षाघात, अर्दित, कटिशूल, ग्रीवा शूल, आमवात, संधिगत वात जैसी व्याधियाँ भी तेजी से बढ़ रही है तथा साथ ही इम्यून सिस्टम के रोग अधिक तेजी से बढ़ रहे हैं। इन सभी रोगों की भारत में बहुत तेजी से प्रगति हो रही है। तथा सर्वाधिक चिन्तनीय विषय यह है कि ये रोग अब ग्रामीण परिवेश तक पहुँच गए हैं। आधुनिक चिकित्सा शास्त्र में भी इनकी कोई कारगर या स्थाई चिकित्सा उपलब्ध नहीं है।

पंचकर्म एक ऐसी चिकित्सा पद्धति है जो वर्त्तमान में तेजी से बढ रहे रोग जिनकी कोई विशेष चिकित्सा उपलब्ध नहीं है या केवल शल्य पर आधारित हैं पर भी कारगर है जैसे हारमोनल सम्बन्धी रोग, इम्यून सम्बन्धी, त्वक् रोग जैसे सोरायसिस, SLE, श्वित्र, विचर्चिका, मस्कुलो स्कलेटल, न्यूरोलोजिकल, रूमेटिज्म, स्पाइनल कोर्ड सम्बन्धी, अस्टियोपोरोसिस, मानसिक व्याधियाँ जैसे अनिद्रा, उन्माद, अपस्मार तथा ई. न. टी. के रोग आदि।
इस प्रकार अधिकांश रोग में सर्वाधिक कार्मुकता होने के कारण पंचकर्म चिकित्सा क्षेत्र में सर्वोत्तम है जिससे जैविक शोधन अंगों के स्तर (Organ level) तक ही न होकर कोशिका (Cell level) पर भी होता हैं। इसीलिए जिन रोगों की आशातीत चिकित्सा नहीं हो पाती है उनके लिए पंचकर्म ही विकल्प के रूप में देखा जाता है।


आयुर्वेद के दोनों प्रयोजन स्वस्थ के स्वास्थ्य की रक्षा तथा आतुर व्यक्ति के रोग प्रशमन, इनकी सिद्धि पंचकर्म द्वारा सम्भव है। चिकित्सा के सिद्धान्तों में सबसे महत्त्वपूर्ण है- 1. संशोधन, 2. संशमन, 3. निदान परिवर्तन, इन तीनों में रोग की पुनः उत्पत्ति न होने के कारण संशोधन का प्रथम स्थान है क्योंकि पंचकर्म के द्वारा ही रोग समूल नष्ट होते हैं। पंचकर्म के द्वारा ही प्रायोजन का प्रथम उद्देश्य स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य को बनाए रखने हेतु ऋतुचर्या के अनुसार पंचकर्म निर्दिष्ट है जिससे रोग उत्पन्न होने से पूर्व ही दोषों को शरीर से बाहर निकाल दिया जाता है जिससे त्रिदोषों में साम्य स्थापित होकर आरोग्य की प्राप्ती होती है।


वर्त्तमान परिप्रेक्ष्य में जो रोगी आयुर्वेद चिकित्सक के पास आता है वह बहुलोल्वण दोष प्रकोप की अवस्था में आता है, तथा पूर्व में ही अनेक प्रकार की चिकित्सा पद्धति से चिकित्सा (अनेक औषध प्रयोग) लेकर आता है इसलिए उस दृष्टि से भी पंचकर्म चिकित्सा का महत्त्व बढ़ जाता हैं क्योंकि इस अवस्था में आतुर को पंचकर्मात्मक आशुकारी चिकित्सा से ही शीघ्र लाभ दिलवाया जा सकता है। वर्तमान समय में पंचकर्म सम्पूर्ण विश्व में डी-टोक्सीफिकेशन एवं रेलेक्स थैरेपी के रूप में विख्यात हैं। पंचकर्म के ही कारण मेडिकल ट्यूरिज्म के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं और पंचकर्म चिकित्सा लेने हेतु लोग विदेशों से भी भारत आने लगे हैं इसकी ख्याति का अनुमान इससे लगा सकते हैं कि विदेशों में भी अनेक आयुर्वेद एवं पंचकर्म के केन्द्र खुल गए हैं। क्यों सम्पूर्ण विश्व एक ऐसी चिकित्सा पद्धति चाहता हैं जो सुरक्षित, उपद्रव रहित जिसका प्रभाव अधिक समय तक हो, तथा रसायनिक पदार्थों का उपयोग अल्प या न हो। आयुर्वेद की पंचकर्म चिकित्सा पद्धति ही ऐसी चिकित्सा पद्धति है जिसने चिकित्सा अनुसंधान, रोग मुक्ति, स्वास्थ्यानुवर्तन क्षेत्र में अपने नये आयाम स्थापित कर, सभी चिकित्सा पद्धतियों में विशिष्ट स्थान प्राप्त किया है।


पंचकर्म को अष्टांग आयुर्वेद में स्थान प्राप्त नहीं है अपितु यह अष्टांग आयुर्वेद के सभी विभागों में इसकी अतीव उपयोगिता है। काय चिकित्सा के लगभग सभी रोगों में पंचकर्म निर्दिष्ट हैं केवल उरूस्तम्भ रोग को छोड़कर, जिससे इसकी महत्त्वता, गौरवता एवं उपयोगिता का बोध होता है। आयुर्वेद की दो विशिष्ट विधा रसायन एवं बाजीकरण के पूर्व पंचकर्म एक आवश्यक कर्म के रूप में निर्दिष्ट हैं। बिना पूर्व पंचकर्म को रसायन एवं वाजीकरण का उपयोग व्यर्थ है।
प्रस्तुत पुस्तक चिकित्सकों एवं बी. ए. एम. एस. तथा एम. डी. विद्यार्थियों हेतु उपयोगी हैं जिसके द्वारा वे सरल शब्दों में पंचकर्म के प्रायोगिक एवं सैद्धान्तिक पक्षों को सरलता से समझ सकते हैं यह पुस्तक सी.सी.आई.एम. के नवीन पाठ्यक्रम के अनुसार है। जिससे बी. ए. एम. एस. तथा एम. डी. विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम को पूरा समझने एवं पढ़ने में सरलता हेतु बिन्दुबार वर्णन किया गया है।
इस पुस्तक के लेखन में हमारे सभी गुरुजन, विद्वान मित्रगण एवं शिष्यों का सहृदय से आभार व्यक्त करते हैं जिनके आशीर्वाद, शुभकामनाएँ तथा सहयोग के कारण इस पुस्तक की रचना सम्भव हो सकी। तथा इस लेखन कार्य में सहयोग हेतु डॉ. हेमा दायमा, डॉ. सत्यप्रकाश, डॉ. उज्वला, डॉ. मुकेश कुमावत साधूवाद के पात्र है।


इस पुस्तक हेतु जिन ग्रन्थों का हमने पुस्तक के सम्पादन में उपयोग किया है उन सभी विद्वानों एवं गुरुजनों का हम विशेष रूप से हृदय से आभार व्यक्त करते हैं।
हम श्री ओम प्रकाश शर्मा, जगदीश संस्कृत पुस्तकालय के प्रकाशक एवं सरस्वती कम्प्यूटर्स के टंकणकर्ता श्री बजरंग लाल शर्मा का हृदय से आभार व्यक्त करते हैं जिनके कारण ही पुस्तक सुन्दर कृति एवं समय पर सम्भव हो सकी।
प्रस्तुत ग्रन्थ का संकलन विभिन्न आयुर्वेद एवं अर्वाचीन ग्रन्थों के सहायता से किया गया है जिससे लेखन कार्य में त्रुटि होना सम्भव है अतः आयुर्वेद विद्वानों एवं शिष्यों से निवेदन है कि त्रुटियों को आगामी संकलन में न रहे इस हेतु संशोधन एवं सुझाव देकर आशीर्वाद प्रदान करें।

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